नींद के दरवाजे

 और रात के अंधियारे के साथ घर के एक कोने में छूट जाते हैं, हमारे सपने। रात ही है जो हम जैसों को रो लेने की सहूलियत देती है और ख़ामोशी बहुत ही बेबाकी से बांध लेती है मन की चीखों को। 



दुनिया जब सपनों में ग़ुम होती है तो छूट जाते हैं हम जैसे कुछ, नींद के दरवाजे पर... हक़ीक़त के खंरोचे हुए। जिन्हे ख़्वाब मयस्सर नहीं होते, हक़ीक़त सोने नहीं देती। हम अपने घरों के नालायक, घरों के कोनों में टूटे-बिखरे-भूले सपनों को जोड़ते, समेटते दिन निकलते जाते हैं... खाली कमरों में हजारों 'काश' के सिवा कुछ नहीं रह जाता, रह जाती है तो हमारे  सपनों की चादर और उस पर ढके ख्याब जो हमेशा सवाल करते रहेंगे.... ऐसे सवाल जिनका हल हर किसी पर नहीं होगा और जिसपर होगा वो एकांत में यहीं सोच रहा होगा आखिर ये नींद के दरवाजे बंद क्यों नही होते..??

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