लो भाई खत्म हुआ चुनावी मेला....

लो भाई खत्म हुआ चुनावी मेला...

 उठ गई चुनाव में लगी राजनीतिक दुकाने और अपने पीछे फिर वही पहले की तरह कही खुशी तो कही गम दे गई...लेकिन दुःख तो सबसे ज्यादा उन्हें हैं जो रोज़ पूड़ी और सब्जी का परम आनंद नेताओ की राजनीतिक दुकानों से खा रहे थे...मैंने भी कहा खा लो खा कुछ दिन और सही फिर ये नेता तुम से इन सब का ब्याज सहित हिसाब चुकता कर लेंगे !
फिर कहते रहना इसने कुछ नही किया उसने कुछ नही किया ...पर क्या फर्क पड़ता हैं लोकतांत्रिक देश हैं भाई जिसका मन करेगा वो वही वोट डालेगा।



"भाइयों मज़ा तो जब आया जब मैंने अपने ही गांव के एक व्यक्ति से पूछा कि चाचा जी हमारे क्षेत्र से कौन - कौन नेता चुनाव में खड़े हुये हैं तो वो मुझसे बोले नाम न पतो मोहे ,नाम में काह रखो हैं ,वोट ही तो डारनी हैं सो डाराएगें ।
ये लो भाई ये सोच हैं 21 वीं सदी के लोगो की ।
आप क्या उम्मीद कर सकते हैं विकास , शिक्षा ,पानी ,सड़क ,चिकित्सा जैसे मुद्दों को लेकर चुनाव में कहने की ।
नेताओं ने खुब सम्मान दिया खूब इज्जत की अब देखना ये हैं कि कितने वादों पर नेता खरे उतरते हैं 
टकटकी लगा कर देखते रहिये जजमान अब क्या होगा आगे ।
खैर जीत -हार चुनाव के दो पहलू भी हैं और अटल सत्य भी लेकिन जो पड़ोसी साथ -साथ रह रहे हो साथ -साथ होली, दिवाली यहां तक कि दुःख दर्द में एक दूसरे के साथ हो तो फिर क्यूँ वो इस चुनावी मेले में आखिर अपने नेता को जीता कर अपने पड़ोस के प्रतिद्वंद्वी भाई को चिढ़ाना चाहता हैं...
क्या ये चुनाव हमें आपसी प्रतिद्वंद्वता या दुश्मनी का संदेश देते हैं ! नही चुनाव नही हम स्वयं इस प्रतिद्वंद्वता के इस जाल में खुद व खुद उलझ जाते हैं।
इन्ही चुनाव की बातों से ध्यान आया चुनाव परिणाम वाले दिन मैं और मेरे गाँव के ही मित्र के बीच बात हुई...
मित्र:- देख ले हमने कही नाही फलानो जीतेगो ।
मैं :- हां भाई सही कही तेने पर अब ई बता गाम में अब विकास हैं जावेगों का ।
मित्र:- विकास गयो तेल लेवे काह करेंगे विकास को
मैं :- अरे यार गाम को मैदान ,गाम की सड़क और हॉस्पिटल को काह होगो 
मित्र:- काह होगो कछु ना होगो जो हते वो सही हैं ।
मैं:- यो बता यार कछु तो अपने पापा के पाम न छुवे और वो नेता के पामन्वे गिर जावे ई काह हैं
मित्र:- मैं ई सोच रहो....आज सुबह एक कह रो  मोते गड्ढा में डार के आयो वोटे यार मोहे बुरी लगी 
मैं;- क्यों बुरी क्यूँ लगी
मित्र:- अरे यार दिन रात मेरे संग रेह और खेले आज ऐसी बात कर रो
मैं:- भाई उसका कसूर न हैं उसके घर वालो ने उसे वोट और अपने प्रतिनिधि के प्रति अच्छा पाठ पढ़ाया हैं तो तेरी मित्रता काहे उनके सामने।
मित्र:- सही कह रहो तू ...ठीक भाई ।

इन बातों में उतनी ही सच्चाई हैं जितनी कि आप अपने विचारों से दूसरों ले बारे में सोचते हैं और ये लेख पढ़ रहे हैं...
सीने में बहुत से शब्द अब भी हैं लेकिन "निःशब्द" हूँ...
लेखक-- ऊधम सिनसिनी

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